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अनुवाद- राजेश कुमार झा
दुन्या मिखाइल– ईराकी अमरीकी कवि, उपन्यासकार एवं लेखक। अनेक कविता संग्रह प्रकाशित। सन 2019 में इन्हें उस वर्ष की दस सर्वश्रेष्ठ कविता पुस्तकों के लिए न्यूयॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी द्वारा सम्मानित किया गया।
१. युद्ध बहुत मेहनत करता है
वाह, कितना भव्य होता है युद्ध !
कितना व्यग्र
कितना सक्षम !
युद्ध-
सुबह सुबह जगाता है सायरनों को
और लगा देता है एंबुलेंसों को अपने काम पर
इधर उधर, यहां वहां
लाशों को हवा में उछाल कर फेंक देता है
घायलों के लिए बिछा देता है स्ट्रेचर
मांओं की आंखों से खींच लाता है
आंसुओं की बरसात
मिट्टी की परतों को खोदकर
ध्वस्त इमारतों और खंडहरों के अंदर से
बाहर निकाल लाता है न जाने कितनी चीजें
जिनमें कुछ तो होती हैं बेजान मगर चमचमाती
कुछ पीले पड़ चुके होते हैं लेकिन धड़कनें रहती हैं चालू…
युद्ध-
बच्चो के दिमाग में पैदा करता है सबसे ज्यादा सवाल
आसमान में पटाखे और मिसाइलें दागकर
देवताओं का करता है मनोरंजन
खेतों में लैंड-माइन बोकर
काटता है फसल- घायल पांव और ध्वस्त गाड़ियों के
परिवारों को प्रेरित करते हैं निर्वासन की जगह तलाशने को
शैतान को श्राप देते पुजारियों-पादरियों-मौलवियों के साथ खड़े होते हैं
(बेचारे धर्मगुरु खड़े रहते हैं आग में हाथ जलाते)…
युद्ध-
काम करता है दिन रात
लंबे लंबे भाषण देने के लिए
तानाशाहों को प्रेरित करता है
फौजी अफसरों को पुरस्कार और तमगे देने
और कवियों को लिखने का विषय देने के लिए
कृत्रिम अंगों के कारखानों को फलने फूलने के लिए
मक्खियों को भोजन उपलब्ध करवाने के लिए
इतिहास की किताबों में पन्ने जोड़ने के लिए
युद्ध-
कातिल और मकतूल के बीच
हासिल करता है बराबरी
आशिकों को सिखाता है प्रेमपत्र लिखना
युवतियों में डालता है इंतजार करने की आदत
अखबारों को लेखों और तस्वीरों से
भरने में करता है मदद
अनाथों के लिए बनवाता है नए घर
नए उत्साह से भर देता है ताबूत बनवाने वालों को
युद्ध-
थपथपाता है कब्र खोदने वालों की पीठ
नेता के चेहरे पर चिपका देता है मुस्कान
लाजवाब- अद्वितीय होती है इसकी मेहनत
लेकिन किसी के मुंह से नहीं निकलता
इसके लिए प्रशंसा का एक शब्द।
२. अंत और शुरुआत
विस्लावा सिंबोर्सका- पोलिश कवि। जन्म 1923, मृत्यु 2012। साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से 1996 में सम्मानित। सिंबोर्स्का की कविताएं अपनी सादगी के भीतर छिपे गूढ़ एवं गंभीर निहितार्थों के लिए जानी जाती हैं। घरेलू जिंदगी के बिंबों को महान ऐतिहासिक संदर्भों से जोड़ने वाली इनकी कविताओं का चुटीलापन गहरा असर छोड़ती हैं।
—-
हर जंग के बाद,
किसी न किसी को करनी होती है सफाई,
आखिर चीजें-
अपने आप तो ठीक नहीं होतीं।
किसी न किसी को हटाना होता है कचड़ा,
रखना होता है सड़क के किनारे,
ताकि लाशों से भरी गाड़ियां,
निकल सकें आसानी से, बेरोकटोक।
किसी न किसी को मैले करने होते हैं अपने हाथ,
हटानी पड़ती है राख और मवाद,
सोफे का टूटा-बिखरा स्प्रिंग,
कांच के टुकड़े,
और खून से सने फटे चिटे कपड़े।
किसी न किसी को तो ढोकर लाना होता है लोहे का खंभा,
ताकि खड़ी की जा सके दीवार,
चमकानी होती है खिड़कियों के शीशे,
ठोंकना होता है फिर से एक दरवाजा।
इन सबकी तस्वीरें नहीं होती खूबसूरत,
लग जाता है बरसों का वक्त,
जा चुके होते हैं कैमरे तबतक,
किसी दूसरी जंग में।
हमें चाहिए होते हैं वापस अपने पुल,
और नए रेलवे स्टेशन,
फट जाती हैं हमारी कमीज की आस्तीनें,
ये सब करते, उठाते गिराते बांहें बार बार।
हाथों में लिए झाड़ू याद करता है कोई,
कैसा था यह सब कुछ पहले,
सामने कोई दूसरा सुन रहा है,
क्योंकि उसका सर अब भी धड़ से लगा है।
लेकिन आसपास कुछ लोग हैं और भी,
लगा है छोटा सा मजमा,
उब रहे हैं वे यह सब सुनकर।
कभी कभार झाड़ियों में मिल जाते हैं अब भी,
जंग खाए कुछ तर्क,
ढोकर ले जाते हैं उन्हें,
डाल देते हैं कूड़े के ढेर में।
जिन्हें पता था,
कि क्या हो रहा था यहाँ,
छोड़ दें रास्ता उनके लिए
जो जानते हैं कम, बहुत ही कम,
इतना कम जो है शायद नहीं के बराबर।
ये वजह थी या वो,
वो वजह थी या ये..
इन बहसों से भी पुरानी घास हो चुकी है बड़ी,
लेटा है कोई इनके बीच होँठों में दबाए तिनका,
तक रही हैं उसकी आँखें, बादलों के पार-लगातार।
(पथ, त्रैमासिक पत्रिका, छत्तीसगढ़ में प्रकाशित, अक्टूबर २०२४)

